सोमवार, 22 मई 2017

गीता का सार


गीता का सार

आज गीता सार के नाम से श्रीमदभगवद् गीता की शिक्षाओं को बेहद गलत ढंग से प्रसारित किया जा रहा है। क्या यह कहा जा सकता है कि जो कुछ पांचों पांडवों, द्रोपदी आदि के साथ हुआ, वह अच्छा हुआ। युद्ध क्षेत्र में अर्जुन के मोह ग्रसित हो युद्ध करने के विचार को अच्छा होना कह गीता के मूलभूत सिद्धान्तों का उपहास उड़ाना ही है।  

कुछ लोगों का इन शब्दों-जो हुआ अच्छा हुआ, जो होगा अच्छा होगा को सही साबित करना जीव की कर्म स्वतंत्रता को मानना है, जबकि गीता में साफ लिखा है कि केवल कर्म करने का अधिकार ही कर्मवीर को है कि कर्मफल पाने का। अब गीता की मुख्य शिक्षाओं को लिखा जाता है -

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥1 (गीता 2/3)
इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥1

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र मुह्यति॥2 (गीता 2/13)
जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता॥2

जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो हन्यते हन्यमाने शरीरे॥3 (गीता 2/20)
यह आत्मा किसी काल में भी तो जन्मता है और मरता ही है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥3

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥4 (गीता 2/22)
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है ||4||

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
चैनं क्लेदयन्त्यापो शोषयति मारुतः॥5 (गीता 2/23)
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता॥5

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥6 (गीता 2/38)
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥6

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥7 (गीता 2/47)
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म करने में भी आसक्ति हो॥7

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥8 (गीता 2/48)
हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।) ही योग कहलाता है॥8

यं हि व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥9 (गीता 2/15)
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥9

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥10 (गीता 3/21)
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु 'लोक' शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है॥10

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि लिप्यते॥11 (गीता 5/7)
जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता॥11

हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥12 (गीता 4/38)
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥12

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥13 (गीता 4/39)
जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है॥13


यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य लिप्यते। 
हत्वापि इमाँल्लोकान्न हन्ति निबध्यते॥14 (गीता 18/17)
जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में तो मरता है और पाप से बँधता है। (जैसे अग्नि, वायु और जल द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की हिंसा होती देखने में आए तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है, वैसे ही जिस पुरुष का देह में अभिमान नहीं है और स्वार्थरहित केवल संसार के हित के लिए ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टि में देखी जाए, तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्वाभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिए वह पुरुष 'पाप से नहीं बँधता')14

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् 
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥15 (गीता 3/35)
अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥15

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् 
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥16 (गीता 6/5)
अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है॥16

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। 
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्17 (गीता 6/6)
जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है॥17

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। 
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥18 (गीता 6/17)
दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है॥18

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् 
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्19 (गीता 9/27)
हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर॥19

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते यः। 
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः मे प्रियः॥20 (गीता 12/15)
जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होने का नाम 'अमर्ष' है), भय और उद्वेगादि से रहित है- वह भक्त मुझको प्रिय है॥20

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। 
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्21 (गीता 16/21)
काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार ( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को 'नरक के द्वार' कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥21

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। 
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥22 (गीता 15/7)
इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है (जैसे विभागरहित स्थित हुआ भी महाकाश घटों में पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है, वैसे ही सब भूतों में एकीरूप से स्थित हुआ भी परमात्मा पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है, इसी से देह में स्थित जीवात्मा को भगवान ने अपना 'सनातन अंश' कहा है) और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है॥22

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्
यः प्रयाति त्यजन्देहं याति परमां गतिम्23 (गीता 8/13)
इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है॥23

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥24 (गीता 18/78)
हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है॥

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